Natasha

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राजा की रानी

रोहिणी भइया के चक्षुओं से मानो स्नेह झरने लगा। वे हँसकर बोले, “अच्छा, अच्छा, सो ठीक। एक रसोइया तक तो रख नहीं सकता, चूल्हे के नजदीक दोनों वेला पचते-पचते तुम्हारी तो देह सूख गयी है।” वे इतना कहकर पान खाकर, जल्दी-जल्दी कदम रखते हुए बाहर चल दिए।

अभया एक छोटी साँस दबाकर, जबरन जरा हँसकर बोली, “देखिए तो श्रीकान्त बाबू, इनका अन्याय! सारे दिन जी-तोड़ मेहनत करने के बाद घर आकर कुछ आराम करें, सो तो नहीं, अब रात को भी नौ बजे तक लड़कों को पढ़ाने बाहर चले गये हैं। मैं इतना कहती हूँ, पर किसी तरह सुनते ही नहीं। दो आदमियों की रसोई के लिए रसोइया रखने की, कहो तो, जरूरत ही क्या है? है न यह सब इनकी ज्यादती?” इतना कहकर उसने एक ओर को ऑंखें फेर लीं।

मैं धीरे से कुछ हँस दिया। 'ना' या 'हाँ' जवाब देना मेरे लिए सम्भव नहीं था- मेरे विधाता के लिए भी सम्भव था या नहीं, इसमें भी सन्देह है।

अभया उठकर गयी और एक पत्र लाकर उसने मेरे हाथ पर रख दिया। कुछ दिन हुए वह बर्मा रेलवे कम्पनी के ऑफिस से आया था। बड़े साहब ने दु:ख प्रकाशित करते हुए लिखा था कि अभया का पति करीब दो वर्ष पहले किसी बहुत बड़े अपराध के कारण कम्पनी की नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया है, तब से वह कहाँ चला गया सो वे नहीं जानते।

हम दोनों ही बहुत देर तक सन्न होकर बैठे रहे। अन्त में अभया ने ही मौन तोड़ा, “अब आप क्या सलाह देते हैं?”

मैंने धीरे से कहा, “मैं क्या सलाह दूँ?”

अभया सिर हिलाकर बोली, “नहीं, सो नहीं हो सकता। ऐसी परिस्थिति में आपको ही कर्तव्य स्थिर कर देना होगा। इस पत्र के मिलने के बाद से ही मैं बड़ी आशा से आपकी राह देख रही हूँ।”

मैंने मन ही मन कहा, बहुत खूब! मेरी राय लेकर ही घर से बाहर निकली थीं न, जो मेरी सलाह के लिए राह जोह रही हो!

बहुत देर तक चुप रहकर पूछा, “घर लौट जाने के सम्बन्ध में आपका क्या मत है?”

अभया बोली, “कुछ भी नहीं। आप कहें तो जा सकती हूँ, किन्तु मेरे तो वहाँ कोई है नहीं।”

“रोहिणी बाबू क्या कहते हैं?”

“वे कहते हैं कि नहीं लौटेंगे। कम से कम दस बरस तक तो वे उस ओर मुँह भी नहीं फिराएँगे।”

बहुत देर तक चुप रहकर मैंने कहा, “वे क्या आपका बोझा बराबर सँभाले रह सकेंगे?”

अभया बोली, “पराये मन की बात, कहिए किस तरह जानूँ? इसके सिवाय वे खुद भी किस तरह जान सकते हैं?” इतना कहकर क्षण-भर वह चुप रही, फिर बोली, “एक बात और है। मेरे लिए वे जरा भी जिम्मेदार नहीं हैं। दोष कहो, भूल कहो, जो कुछ है सो मेरी है।”

गाड़ीवान ने बाहर से पुकारा, “बाबू, और कितनी देर लगेगी?”

जैसे मेरी जान बच गयी। इस अवस्था-संकट के भीतर से सहसा परित्राण पाने का कोई उपाय मुझे खोजे नहीं मिल रहा था। यह सच है कि विश्वास करने को मेरा दिल नहीं चाहता था कि अभया वास्तव में ही अपार सागर में गिरकर गोते खा रही है, किन्तु मैंने स्त्रियों की इतने तरह की उलटी-सुलटी अवस्थाएँ देखी हैं कि बाहर से इन ऑंखों पर विश्वास कर लेना कितना बड़ा अन्याय है, सो मैं नि:संशय रूप से समझता था।

गाड़ीवान का एक दफे और बुलाना था कि मैं क्षण-भर भी विलम्ब किये बगैर उठ खड़ा हुआ और बोला, “मैं शीघ्र ही और एक दिन आऊँगा।” इतना कहकर मैं तेजी से बाहर हो गया। अभया और कुछ न बोली। निश्चल मूर्ति की तरह जमीन की ओर देखती रह गयी।
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